स्वीकार था,अभिमान था,अभिभाव था
तुमको प्रेम का भी संज्ञान था
किंचित मात्र था शायद दुख तुम्हारा
उम्रदराज थी लेकिन पीड़ा हमारी..
तम हरना चाहा था,
एक दीपक जलाना चाहा था
तुम्हारे प्रेम को इस हृदय में बसाना चाहा था
चेष्टाएं अधूरी थी,
पूर्ण हृदय से नहीं की गईं थीं
वचनों में अवहेलना थी,
स्तिथि का किन्तु बोध था।
विचार संलिप्त थे, बेहद ही महत्वकांक्षी
आसरा था,लेकिन वो टूटना ही था
भरम का तिलिस्म था,स्वार्थी थी चाहतें भी
समय के प्रतिरूप में दोषारोपण था
समाहित था तुम्हारे आलिंगन में संसार
शेष था व्यथा था विस्तार...
लेकिन तुम समझ ही न सके प्रेम का आकार...