मै तो लेकर चलना चाहती थी तुमको साथ
लेकिन तुम तो पड़े हो उन्ही रवायतों में
अनसुने विचार प्रकट हो गए थे
लेकिन तुम्हारी हकीकत अभी भी नहीं
अब मै इस समाज से कोई भी चाहत नही करती
क्योंकि वो क्या है न मैं उम्मीद नहीं रखती।
गलत नहीं हो तुम शायद...लेकिन गलत मैं भी तो नहीं
जिंदगी में बस एक तुम्हारी ही कमी तो नहीं
मै सोच के हैरान हूँ कि तुम साधारण ही निकले
सोच थी दुनिया बदलने की और तुम पीछे ही निकले
इसलिए शायद अब मै कोई उम्मीद नहीं रखती
शायद इस बंधन को तुम बंधन समझो....
और क्या बंधन ही है ये...तुम्हारी सोच का बंधन
क्यों मुक्त नही....क्यों उन्ही झंझटों में हो
मै तो दो पल ठहर कर तुम्हे सहारा दे भी दूँ
लेकिन वो क्या है न मैं उम्मीद नहीं रखती
मौसम से नज़ारे एक तरफ तुमसे किनारे एकतरफ
तुम जो तुम हो....शायद वो तुम हो ही नही
परदे के पीछे कुछ और ही था...
और जो मैं देखती रही वो था एक छदम्
मैं तो अब सम्भाल लूँ अपने को
लेकिन तुम्हारा सोच के अब परेशान नहीं होती
क्योंकि मैं अब कोई उम्मीद नहीं रखती...