सुनती रहती हूँ उन हलचलों को अक्सर
कुछ अनकही चीज़ें है
कुछ उलझे से एहसास हैँ
इक अधूरी सी तमन्ना है
दूर कहीं इक आवाज पुकारती है
पर्वतों क़े सन्नाटे बुलाते हैं
सुन के भी अनसुना कर सकूँ
ये कैसें कर दूँ मै
आहटों के पीछे की कमज़ोरी
तुमसे बहुत कुछ न कह पाने की मजबूरी
विकल हो रही हैं ये सर्दियाँ
परवाज़ इन्हें शायद तुम्हारी है।
सही है
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